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बुधवार, 25 जुलाई 2012


मुनव्वर मां के आगे यूँ कहीं बेजार न होना
जहाँ पर नीव हो , इतनी नमी अच्छी नहीं होती .
                                            मुन्नवर राना
  सावन के इस भीगते मौसम में  माँ की यादें फिर आंखे गीली कर  गयीं. हमें याद आता जब हम खेतों पर जाते थे , और काम की देख भाल में घर आने में देर होने लगती थी , माँ का बार बार फ़ोन कर के जल्दी आने का कहना ,रह रह कर याद आता है . माँ क्या चली गयी ये घर अकेला हो गया
              माँ की ममता भरी छांव से वंचित होना वट वृक्छ की छाया से वंचित होना है. सहना ही शेष रह जाता है

सोमवार, 23 जुलाई 2012


जब आप तनहाई में होते हैं तो विचारों /चिंतन का अविरल
प्रवाह बहुत कुछ कहने लगता है ......यदि आपको ठहर कर
सुनने की फुर्सत हो तो बहुत कुछ उद्भासित होने लगता है ....
ऐसे ही कुछ ठहरे पलों में मेरे मन में  उगे विचारों की बानगी इन
पंक्तियों में व्यक्त है .........
चेतना
चिरंतन सत्य का वचन ,
कथा की बांसुरी ,
वाचक की वाणी ,
व्यथा की अभिव्यक्ति है .
क्या
जीवन के अप्रतिम आकर्षण में
आप
स्वयं को तो नहीं भुला रहे हैं,
क्या
धूप की चादर में
रोशनी टांकती किरणों में
आप
अंधकार का आलेख तो नहीं लिख  रहे हैं
हो सकता है
आप खुद में
कुछ नया तलाशने के प्रयास में
जो सहज सरल साध्य था
उसे भी
जटिल, दुरूह करदेने में ही
अपना
पांडित्य , पुरषार्थ, उत्कर्ष एवं उपलब्धि
मानते हों

गुरुवार, 19 जुलाई 2012


एक दिन काशी  में गंगा तट की ओर जा रहे शंकराचार्य ने एक चंडाल को देख कर ज्यों ही "गच्छ दूरम "(दूर रहो ) कहा तो उस चंडाल ने कहा "महात्मन दूर हटो से आपका अभिप्राएय क्या है ,देह(शरीर)  से या देहि (आत्मा ) से . यह शरीर अन्न से परिपुष्ट होने के कारण अन्नमय कहलाता है , तो क्या एक अन्नमय दूसरे अन्नमय से भिन्न है.
चंडाल पूछता है "क्या आप जैसे ब्रह्मज्ञ और अद्वेत्वादी के लिए ब्रह्मण और चंडाल का भेद उचित है.गंगाजल और मदिरा में सूर्य के प्रतिबिम्ब भले ही भिन्न हों पर दोनों में बिम्ब्भूत सूर्य तो एक ही है .
 चंडाल के शब्दों ने आचर्य शंकर को झकझोर डाला, वह बोल उठे "हे शम्भो देह द्रिस्ट से आप का दास हूँ और जीव द्रिस्ट से आपका अंश . मैं आपसे किसी प्रकार भिन्न नहीं हूँ .
     " हर हर महादेओ" "ॐ नमह शिवाय "
             सद गुरुदेओ भगवन की जय    

सोमवार, 16 जुलाई 2012


जीवन एक अविराम संकीर्तन है . जीवन ठहरने का नाम नहीं, यह एक सतत यात्रा है . यह सफ़र खुद में   खुद को तलाशने की कोशिश है. इस यात्रा की भाव भूमि पर मेरा एक
गीत  
         तुम दीपों की चिर आभा हो ,
                                करुणा के पहले आमंत्रण
   मैंने जीवन में अनुभव का ,
   शैशव ही देखा था प्रियतम ,
    भावों की अनकही कथा में
     नीर नयन का मन का दर्पण
               तुम वाणी के सजल कथन हो
                            अर्पण के अनमोल निवेदन
       अंगराग सा नेह  तुम्हरा
       खंडित  प्रतिमा  में भिन  जाता
        नेहों की पुलकावली में आ
        कौन चितेरा रंग भर जाता
                 तुम शब्दों के मौन शिखर हो ,
                             भावों के अनकहे निमंत्रण
         सत्य तुम्हरा सत्य रहेगा
          जीवन के अनुभव कक्छों में
           करुणा भी अनुराग बनेगी
           बस पीड़ा    के मृदु वक्छों  में
                       तुम वेदों की प्रथम ऋचा हो ,
                               ऋषियों के पहले अभिमन्त्रण    

रविवार, 15 जुलाई 2012

आप का ब्लॉग अनकहे पल देखा कई लेख पढ़ा भी .आप की   शैली, शब्द चयन , प्रस्तुतीकरण, लेखन और अपनी बात को कहने का अंदाज अद्भुत है. वह चाहें माँ  की स्मृति को बयां करता आलेख हो या अदम जी का संस्मरण हो या कॉलेज के दिनों की यादें हो या एक ढाबे में  सिल बट्टे पर वास्तु शिल्प का मिलना . सब कुछ आप की लेखनी  से जीवंत हो उठा है . मेरा अनुरोध है की आप बराबर अपने विचारों , यादों एवं संस्मरणों का लिखना जारी रखें,  मेरी बधाई स्वीकर करें    

शनिवार, 14 जुलाई 2012


तुमने तो छतरियों के सहारे कही गजल
हमने गजल कही है मगर भीगते हुए
                                        उर्मिलेश
हमसे पूछो मिजाज़ बारिश का
हम तो कच्चे मकान वाले हैं
                            अशफाक अंजुम  

तिवारी जी का ब्लॉग नेपथ्य से देखा. उनका मिशन वक्तव्य भी पढ़ा . उनके लिए एक शेर ;
   जिस्म और रूह का कितना अजीब रिश्ता है
    उम्र भर साथ रहे पर तार्रुफ़  न हुआ